मनुष्य की बुद्धि व्यावसायिक होती है इसलिए वह लेन-देन की भाषा मे ज्यादा सोचता है और बोलता है। धर्म कोई व्यवसाय नहीं है फिर भी उसकी उपयोगिता समझने के लिए व्यक्ति व्यावसायिक भाषा का प्रयोग करता है। प्रस्तुत पुस्तक में चेतना की स्वाभाविक परिणति को दर्शया गया है।